दिल्ली, भारत की राजधानी, जिसे दिलवालों का शहर भी कहते है। परन्तु बीते दिनों में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हो रहे दंगो को देख कुछ और ही प्रतीत होता है।
दिल्ली में हो रहे दंगो ने सरकार और प्रशासन दोनो के खिलाफ अनेकों सवाल खड़े कर दिए है। ताजुब की बात तो यह है कि सरकार यह भली भांति जानती है कि इन दंगो का मुख्य कारण उनके द्वारा लाया गया नागरिक संशोधन अधिनियम हैं। यह जानते हुए भी भारत सरकार का इस मामले में चुप्पी साध लेना उनकी विफतला को दर्शाता है।
ऐसे हालात में जब जनता अपने चुने हुए नेताओं से यह उम्मीद करती है की वे इन दंगो को सुलझाएंगे, तो वहीं कुछ नेताओं के भड़काऊ भाषण मानो जलती दिल्ली में घी डालने का काम कर रहे है।
भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा ने बयान दिया, “जाफराबाद और चांद बाग की सड़के खाली करवाए इसके बाद हमें मत समझाए, हम आपकी भी नहीं सुनेंगे, सिर्फ तीन दिन।” इस बयान के उपरांत दिल्ली के उत्तर पूर्वी इलाकों में आग और भड़क उठी। कपिल मिश्रा के इस बयान ने ना सिर्फ दिल्ली में बल्कि दिल्ली की जनता में नफरत की आग भड़काई है।
केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री, अनुराग ठाकुर ने दिल्ली विधासभा चुनाव के दौरान कहा, “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को”। भारत देश में तो सब भारतीय देशभक्त हैं, तो फिर वे गद्दार किन्हें कहना चाहते है?
आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन ने तो मानो हद्द ही कर दी, इन पर ना सिर्फ हिंसा फैलाने और दंगा भड़काने का आरोप लगा बल्कि इनके खिलाफ आई बी अधिकारी अंकित शर्मा की हत्या का भी आरोप लगा। जब पुलिस ने घर पर कब्ज़ा किया, तो वहां से पेट्रोल बम, तेज़ाब के पाउच और पत्थर बरसाने के लिए गुलेल जैसे हथियार भी बरामद हुए। जो कहीं ना कहीं इस बात की पुष्टि करता है कि यह इल्जाम सत्य हो सकते है।
विभूति नारायण राय ने अपने उपन्यास “शहर में कर्फ़्यू (दंगो पर आधारित)” यह बताने की कोशिश की है कि किस तरीके से सियासत के जरिए देश के दो बड़े धार्मिक तबकों में अविश्वास पैदा किया जाता है।
हमारे नेताओं ने इस तरह से भड़काऊ भाषण देकर दो धर्मो के बीच ही नहीं बल्कि लोगो के बीच हीन भावना और अविश्वास को पैदा किया है।
पूर्व आई.पी. एस. अफसर सुरेश खोपड की किताब “मुंबई जल रहा था पर भिवंडी क्यों नहीं” और उनके द्वारा दिए गए बी. बी. सी. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “भारत पुलिस बल में सिर्फ 4% मुसलमान है और बाकी 96% के कई लोग सांप्रदायिक सोच वाले होते है, लेकिन दंगे ना रुक पाने के कारण कुछ और है”।
उन्होंने यह भी कहा, “इतने दंगो के बावजूद किसी भी सरकार ने पुलिस बल को ऐसे मामले रोकने के लिए सशक्त नहीं किया”।
उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए दंगो पर सरकार द्वारा सही समय पर सशक्त कदम ना उठाना उनकी असमर्थता को दर्शाता है।
सूत्रों के मुताबिक दंगो में 47 की मौत हुई और 400 से अधिक लोग घायल हो गए। यही नहीं उग्र दंगाइयों ने 122 मकाने 322, दुकानें, 301वाहनों और 1 पेट्रोल पंप को भी आग में झोंक दिया। हिंसक दंगो में आई बी अधिकारी,अंकित शर्मा और हेड कांस्टेबल , रतनलाल की भी मौत हो गई।
सवाल यह उठता है कि एक साथ रहने वाले लोगों में इतनी हिंसक भावना कैसे आ सकती है?
यही नहीं दंगो से कारोबार और आर्थिक स्थिति भी प्रभावित हुई। करावल नगर व्यापार एकता मंडल के उप- अध्यक्ष प्रदीप कुमार अरोड़ा ने दावा किया कि 5 दिन दुकानें बंद रहने और हिंसा के दौरान दुकान जलाए व लूट लिए जाने से 200 करोड़ रुपए का नुक़सान हुआ। उत्तर पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों जैसे शेरपुर, चांद बाग, भजनपुरा मार्केट, मौजपुर के अनेकों दुकानों बंद हो जाने से रोजगार पर असर हुआ और वहीं करोड़ों का नुक़सान भी हुआ, जिसकी वजह से लोगों की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई।
विभूति नारायण राय की किताब, “सांप्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस” में उन्होंने कहा है, “सांप्रदायिक दंगो को प्रशाशन कि एक बड़ी असफलता के रूप में लिया जाना चाहिए”।
राय साहब का यह कथन सत्य है, दिल्ली भी जलती रही, दंगाई कोहराम मचाते रहे और दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही,जो प्रशासन की असफलता को दर्शाता है। दिल्ली पुलिस की विफलता पर अनेकों सवाल उठते है, “क्यों दिल्ली पुलिस दंगो को काबू नहीं कर पाई?” “जब दंगाई साज़िश रच रहे थे, तब पुलिस क्या कर रही थी?” “क्यों सरकार लोगो को सुरक्षा और दंगो को शांत करने में असमर्थ रही?”
सवाल अनेक है पर जवाब ना सरकार के पास है और ना प्रशासन के। दंगो का खामियाजा भुगता है तो सिर्फ दिल्ली के लोगो ने।
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