कोरोना वायरस के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए सरकार ने कॉलर ट्यून का बखूबी इस्तेमाल किया, जिसमें एक बहुत अच्छी बात कही गई, “हमें बीमारी से लड़ना है, बीमार से नहीं।”
लोगों ने इसे सुना तो ज़रूर मगर समझा नहीं! जब हम कहते हैं कि हमें बीमारी से लड़ना है बीमार से नहीं, इसका अर्थ है हमें उस व्यक्ति से घृणा नहीं करना है, उसे हीन भाव से नहीं देखना है या उसका बहिष्कार नहीं करना है। अपितु ऐसे कठिन समय में हमें उस व्यक्ति की मदद करनी है।
छोटी सी बात लोगों की समझ में क्यों नहीं आती?
दु:ख की बात यह है कि इतनी छोटी सी बात आजकल के पढ़े-लिखे लोगों को समझ नहीं आती है। हाल ही में मुझे कोरोना वायरस हुआ था और मेरे साथ मेरे कुछ सहकर्मियों को भी हुआ। इस दौरान जब मैंने उनसे बात की तो यह महसूस किया कि लोगों को अपनी बीमारी से ज़्यादा आसपास के लोगों के व्यवहार की चिंता थी।
उनका कहना था कि बीमारी तो हम झेल लेंगे लेकिन पुलिस जो घर के बाहर पर्चा लगा कर जाती है और आस-पड़ोस के लोगों के ताने और व्यवहार में जो बदलाव आता है, उसे नहीं झेल पाएंगे। बहरहाल, इस दौरान सोसाइटी में कोरोना से ग्रसित हुए लोगों ने खूब तिरस्कार झेला है। मदद मांगने पर मदद ना मिलने का दुख झेला है।
वहीं दूसरी ओर पी.जी. में रहने वाले लोगों को यह डर है कि कहीं उन्हें कोरोना हो गया तो उनका पी.जी. मालिक उन्हें निकाल ना दे, क्योंकि ऐसे समय में घर ढूंढ़ना या किसी के घर पनाह लेना नामुमकिन सा लगता है।
शायद मेरी किस्मत अच्छी है जो मुझे ऐसा पी.जी. मालिक मिला जिसने ना सिर्फ बीमारी को समझा, बल्कि बीमार का साथ भी दिया। फिर दुख इस बात का है कि मैं जिस पढ़े-लिखे समाज में रहती हूं, उन्हें यह बात समझ नहीं आई। इस पढ़े-लिखे समाज के अनपढ़ सोच के लोगों ने यह तक कह दिया कि आपने कोरोना ग्रसित लोगों को किराए पर क्यों रखा है? तमाचा तो पड़ा जब जवाब में यह कहा गया कि क्या आपके बच्चों को होता तो आप उन्हें अपने घर से बाहर निकाल देते?
पढ़ा-लिखा समाज तब समझदार कहलाता है, जब उसकी सोच में बदलाव आता है
जिस कार्यालय में मैं कार्यरत हूं, वहां एक ओर ऐसे कठिन समय में लोगों का साथ मिला। वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने इसे कर्म और पाप से जोड़ अपनी तुच्छ मानसिकता को दर्शाया। अचंभित हूं ऐसे लोगों की सोच पर कि ऊंचे पद पर बैठे हैं मगर सोच उतनी ही ज़्यादा नीची है।
सोचने की बात है कि जब पढ़ा-लिखा समाज ही इस तरह की तुच्छ मानसिकता रखेगा तो हम कैसे एकता के साथ इस बीमारी से लड़ेंगे?
प्राइवेट अस्पतालों द्वारा हो रही मनमानी और बीमारी के नाम पर लूट
जब मैं अपनी बहन का टेस्ट कराने हरियाणा के प्रसिद्ध अस्पताल मेदांता गई, तो यह अनुभव किया कि इस तरह के बड़े अस्पताल केवल अमीरों के लिए हैं। टेस्ट कराने आए लोगों को एक टेंट में ऐसे पंखों के सामने बैठाया गया, जो ठीक से काम नहीं कर रहे थे।
टेस्ट कराने की प्रक्रिया इतनी लंबी है कि एक बीमार व्यक्ति और बीमार हो जाए, क्योंकि उसे आठ पन्ने के कोरोना टेस्ट का फॉर्म और उसके साथ मेदांता का रजिस्ट्रेशन फॉर्म भरना अनिवार्य होता है। कर्मचारियों का व्यवहार ऐसा था जैसे इलाज मुफ्त में कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि क्या मेदांता में गृह मंत्री अमित शाह और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को भी यह सब सहना पड़ा? नहीं, क्योंकि वे सत्ताधारी लोग हैं और ऐसे प्रसिद्ध अस्पताल केवल अमीरों और सत्ताधारी लोगों के लिए बनाए गए हैं।
हद तो तब हो गई जब RT PCR की कीमत 1600 हज़ार से बढ़ाकर 1800 हज़ार कर दी गई और यह कहा गया कि 200 रुपये आपको रजिस्ट्रेशन के लिए देना होगा। यह जानकारी आपको कस्टमर केयर नहीं प्रदान करता है। वह आपको इस टेस्ट की कीमत 1600 रुपये ही बताएगा।
ट्विटर पर ट्वीट करने के बाद मेदांता के शिकायतकर्ता विभाग से एक कॉल आई, जिसका निष्कर्ष यह निकला कि वो यह बात मैनेजमेंट तक पहुंचाएंगे लेकिन कब तक? वह कब तक पहुंचेगा और पहुंच भी गया तो मैनेजमेंट क्या निर्णय लेगा इसका कुछ पता नहीं।
कठिन समय में टेस्ट की कीमत बढ़ाने का अभिप्राय
इस तरह से अस्पतालों को सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है। मैनेजमेंट को पता है कि ऐसे बड़े अस्पताल में लोग कम ही आते हैं, तो ऐसे में वे पहली बार टेस्ट कराने आ रहे लोगों से 200 रुपये आराम से ऐंठ सकते हैं। जब मैं अपना एवं अपनी दोस्त के टेस्ट कराने गुरुग्राम, हरियाणा के सिविल अस्पताल पहुंची, तो वहां कुछ अलग ही नज़ारा मिला।
अपने इलाज के लिए आए लोग पंक्ति में खड़े थे और इंतज़ार कर रहे थे कि कब डॉक्टरों को दिया गया लंच का समय खत्म हो, क्योंकि वहां के डॉक्टरों को लंच के लिए दिया गया एक घंटे का समय भी कम लगता है। उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि ऐसी महामारी में उन्हें अपने और आए हुए लोगों की कीमत एवं उनकी दशा को समझना चाहिए। इलाज कराने आए लोगों ने जब डेढ़ घंटे से अधिक हो जाने पर हंगामा मचाया तब डॉक्टर उपलब्ध कराए गए।
क्या डॉक्टर अपना कर्म इसलिए भूल जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे सरकारी अस्पताल में काम कर रहे हैं और उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है?
इस दौरान सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए डॉक्टरों से काफी मदद मिली। उनके द्वारा समय-समय पर हाल-चाल पूछना, घर पर आकर सेवाएं प्रदान करना और दवाइयां भी मुहैया कराई गईं, जो बहुत सराहनीय है। 17 दिन बाद अस्पताल से हमें कॉल आया जिसमें उन्होंने हमसे कोरोना के लक्षण पूछे और कोई लक्षण ना पाए जाने पर डिस्चार्ज कर दिया ।
कई लोग ऐसे हैं जिनमें लक्षण नहीं दिखाए देते मगर वे कोरोना से ग्रसित होते हैं। क्या ऐसे में बिना टेस्ट के डिस्चार्ज देना और रिकॉर्ड में रिकवर लिख देना सही होगा? कोरोना वायरस एक ऐसी बीमारी है, जो किसी को कभी भी हो सकती है। एक बीमार व्यक्ति सिर्फ दवाइयों से ठीक नहीं होता, वह ठीक होता है अच्छे व्यवहार से। इसलिए ज़रूरी है कि ऐसे समय में बीमारी से लड़ने में बीमार का साथ दें, उनका तिरस्कार ना करें।